जिस सती कांड से राजस्थान में आया था सियासी भूकंप

  37 साल बाद आए फैसले में आया ये फ़ैसला 

37 साल बाद बहुचर्चित रूप कंवर सती कांड में बुधवार को फैसला आ गया है। जयपुर की विशेष सती निवारण अदालत ने सभी आठ आरोपियों को बरी कर दिया। 4 सितंबर 1987 को राजस्थान के सीकर जिले के दिवराला गांव में 18 वर्षीय रूप कंवर ने अपने पति की चिता पर कथित तौर पर सती की थी। इस घटना के बाद रूप कंवर को गांव में "सती माता" का दर्जा दिया गया और उनके नाम पर मंदिर भी बना। घटना के वक्त उनके पति माल सिंह की बीमारी से मृत्यु हो गई थी, जिसके बाद उन्हें सती होने के लिए मजबूर किए जाने का आरोप लगाया गया। जांच में पाया गया था कि रूप कंवर अपनी इच्छा से सती नहीं हुई थीं, बल्कि परिवार और गांववालों के दबाव में यह कदम उठाया गया।

रूप कंवर सती कांड के बारे में ज्यादा जानकारी दें इससे पहले जान लीजिए कि कौन-कौन थे आरोपी और क्या थे उन पर आरोप...

आरोपियों में श्रवण सिंह, महेंद्र सिंह, निहाल सिंह, जितेंद्र सिंह, उदय सिंह, नारायण सिंह, भंवर सिंह और दशरथ सिंह शामिल थे। 39 लोगों के खिलाफ मामला दर्ज किया गया था, जिसमें आरोप था कि दिवराला गांव में सती प्रथा का महिमामंडन किया गया और रूप को इस अमानवीय प्रथा के लिए प्रेरित किया गया। इस मामले ने पूरे देश में हंगामा मचा दिया था और सती प्रथा के खिलाफ जागरूकता बढ़ाने की मांग ने जोर पकड़ा। 

क्या है दिवराला का सती कांड, कौन थी रूप कंवर ? 


सती कांड दिवराला, राजस्थान का एक अत्यंत संवेदनशील और ऐतिहासिक मामला है, जो 4 सितंबर 1987 को हुआ था। यह घटना अलवर जिले के दिवराला गांव में घटित हुई थी, जहाँ 18 वर्षीय रूप कंवर नामक एक विधवा महिला को सती होने के लिए मजबूर किया गया था। इस घटना ने देशभर में व्यापक आक्रोश और विरोध प्रदर्शनों को जन्म दिया, और यह सती प्रथा पर कड़ा कानून लागू करने की दिशा में एक निर्णायक मोड़ साबित हुई। 

आपको सिलसिलेवार घटनाक्रम बताते हैं ...

रूप कंवर के पति की मृत्यु के बाद, उसे कथित रूप से सती के रूप में सजाया गया और पूरे धार्मिक रीति-रिवाजों के साथ उसके पति की चिता पर जलने के लिए प्रेरित किया गया। सती होने को उस समय कुछ ग्रामीणों ने धार्मिक और सम्मानजनक कार्य माना, लेकिन यह कानून और मानवाधिकारों के खिलाफ था. रूप कंवर की मृत्यु के बाद, उन्हें कुछ ग्रामीणों द्वारा देवी के रूप में पूजने की कोशिशें की गईं, लेकिन कानून और महिला संगठनों के दबाव के कारण इन प्रयासों पर रोक लगाई गई. इस घटना ने देशभर में महिलाओं के अधिकारों, सती प्रथा, और महिला सशक्तिकरण पर नई बहस छेड़ दी, जिससे समाज में महिलाओं की स्थिति पर व्यापक विचार-विमर्श हुआ. दरअसल, रूप कंवर की सती की घटना आज भी एक प्रतीकात्मक मामला बनी हुई है, जो महिला अधिकारों और पारंपरिक प्रथाओं के टकराव को दर्शाती है|


रूप कंवर सती कांड के बाद देश में क्या हुआ , ये भी जान लीजिए...

सती प्रथा (प्रतिषेध) अधिनियम, 1987: इस घटना के बाद, भारत सरकार ने सती प्रथा को पूरी तरह से प्रतिबंधित कर दिया और सती को बढ़ावा देने या उसका महिमामंडन करने पर सख्त सज़ा का प्रावधान किया। यह अधिनियम 1988 में लागू हुआ।

कानूनी कार्यवाही: कई ग्रामीणों और कथित तौर पर सती प्रथा को बढ़ावा देने वाले लोगों पर मुकदमा चलाया गया। लेकिन लंबे समय तक चली कानूनी प्रक्रिया के बाद, 2004 में रूप कंवर की मौत के मामले में सभी आरोपियों को सबूतों की कमी के कारण बरी कर दिया गया।


जानिए इस केस में राजनीतिक और सामाजिक नेताओं की भूमिका क्या थी, क्योंकि ऐसे केस में, जनता बिना किसी नेता के समर्थन या विरोध के, सामूहिक रूप से इकठ्ठा होकर सती के प्रेरित करने या उसे महिमा मंडन करने का काम नहीं कर सकती थी.  दिवराला सती कांड में राजनीतिक नेताओं की भूमिका ने इस मामले को और भी जटिल और संवेदनशील बना दिया था। इस घटना ने न केवल स्थानीय बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर भी राजनैतिक उथल-पुथल पैदा की। आइए इस पर विस्तार से नज़र डालते हैं|


सबसे पहले बात  स्थानीय नेताओं की भूमिका की ...

समर्थन और विरोध का संतुलन: दिवराला में कई स्थानीय नेताओं ने घटना के तुरंत बाद सती प्रथा के महिमामंडन को समर्थन दिया। कुछ नेताओं ने इसे धार्मिक और सांस्कृतिक परंपरा के रूप में देखा, जबकि कुछ ने इसे एक महिला की आस्था का प्रतीक बताकर समर्थन किया। हालाँकि, यह एक संवैधानिक और कानूनी मुद्दा बन गया, क्योंकि सती प्रथा को पहले से ही असंवैधानिक घोषित किया गया था।

ग्रामीणों और स्थानीय समाज पर प्रभावशाली नेताओं का दबाव था कि वे सती प्रथा को परंपरा के नाम पर सही ठहराएं। इस वजह से, कुछ नेताओं ने घटना की निंदा करने के बजाय इसे "धार्मिक स्वतंत्रता" के मुद्दे के रूप में देखा।

उस वक्त राजस्थान की सियासत में ये नेता थे प्रासंगिक 

रुपकंवर सती कांड के समय राजस्थान में कांग्रेस सरकार थी.  उस समय राजस्थान में कांग्रेस की सरकार थी, जिसके मुख्यमंत्री शिवचरण माथुर थे। इस घटना के बाद राज्य सरकार पर दबाव था कि वह इस अमानवीय प्रथा को रोकने के लिए त्वरित कार्रवाई करे। हालांकि, शुरुआत में कुछ नेताओं ने सांस्कृतिक भावना को ध्यान में रखकर सीधी आलोचना से बचने की कोशिश की, लेकिन बाद में जब राष्ट्रीय स्तर पर विरोध और आक्रोश बढ़ा, तो सरकार को सख्त कदम उठाने पड़े. वहीं विरोधी दलों की प्रतिक्रिया: राजस्थान में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और अन्य विपक्षी दलों ने इस घटना का उपयोग सरकार के खिलाफ किया, सरकार पर कार्रवाई में देरी और सती प्रथा के पुनरुत्थान को रोकने में विफल रहने का आरोप लगाया। हालांकि, भाजपा के कुछ स्थानीय नेताओं ने इस घटना पर सटीक रूप से प्रतिक्रिया नहीं दी और यह मुद्दा सांस्कृतिक और धार्मिक पहचान से जुड़ गया, जिससे राजनीतिक बहस और भी पेचीदा हो गई।

इस मामले ने  राष्ट्रीय स्तर पर तूल पकड़ा और सती कांड की उस दौर में गूंज रही. राजीव गांधी सरकार: 1987 में केंद्र में राजीव गांधी की सरकार थी। दिवराला सती कांड ने राष्ट्रीय स्तर पर भी आक्रोश को बढ़ाया और राजीव गांधी सरकार को सती प्रथा को जड़ से खत्म करने के लिए कदम उठाने के लिए मजबूर किया। इस घटना के बाद ही सती (प्रतिषेध) अधिनियम, 1987 लाया गया, जिसने सती प्रथा के महिमामंडन और इसके समर्थन को अपराध घोषित किया।

महिला अधिकारों की समर्थक नेता: कई महिला नेताओं और कार्यकर्ताओं ने इस घटना की कड़ी आलोचना की। सुभाषिणी अली, जो उस समय सीपीआई (एम) की सदस्य और महिला आंदोलन की प्रमुख नेता थीं, उन्होंने इस घटना का तीव्र विरोध किया और सती प्रथा के खिलाफ व्यापक आंदोलन चलाया।

चर्चा दिवराला के रूपकंवर सती कांड में भैरों सिंह शेखावत, कल्याण सिंह कालवी की भूमिका की भी कर लेते हैं जिसमें दिवराला सती कांड के समय राजस्थान की राजनीति में भैरों सिंह शेखावत और कल्याण सिंह कालवी जैसे प्रमुख नेताओं की भूमिका महत्वपूर्ण थी, क्योंकि वे उस दौर के प्रभावशाली राजनेता थे। 1987 में जब दिवराला सती कांड हुआ, उस समय भैरों सिंह शेखावत राजस्थान विधानसभा में विपक्ष के नेता थे। वे भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के प्रमुख नेता थे और राज्य की राजनीति में एक महत्वपूर्ण चेहरा थे. भैरों सिंह शेखावत ने इस घटना पर खुले तौर पर निंदा करने का प्रयास किया और राज्य सरकार की विफलता की आलोचना की, क्योंकि सती कांड के बाद सरकार ने तत्काल कदम नहीं उठाए थे। उन्होंने इस घटना को सामाजिक और कानूनी दृष्टिकोण से अमानवीय और अवैध करार दिया। इसके बावजूद, शेखावत की पार्टी के कुछ स्थानीय नेताओं ने सांस्कृतिक परंपराओं के नाम पर इस घटना के प्रति सहानुभूति दिखाई थी, जिससे भाजपा पर विवादास्पद स्थिति बनी रही. खुद भैरोंसिंह शेखावत को भी परंपरावादी नेताओं के विऱोध का सामना करना पड़ा था, क्योंकि वे खुद भी उसी समुदाय से आते थे. इसके बावजूद, शेखावत ने सती प्रथा के खिलाफ कड़े कदम उठाने की वकालत की, लेकिन उस समय इस मुद्दे पर राजस्थान में गहरी सांस्कृतिक और धार्मिक भावनाओं के कारण स्पष्ट विरोध की स्थिति में आना आसान नहीं था। गौर करने लायक बात यह है कि राजपूतों से जुड़ा मामला होने के बाद भी भैरोंसिंह शेखावत की प्रोग्रेसिव सोच ऐसी रही कि सती प्रथा को समाप्त करने के लिए बनाए कानूनों का उन्होनें खुले मंच से समर्थन किया. उधर, एक और सामाजिक और राजनीति नेता कल्याण सिंह कालवी इस मामले में कुछ अलग रूख़ लिए हुए थे. कल्याण सिंह कालवी, जो भारतीय जनता पार्टी के बड़े नेता थे, दिवराला सती कांड के दौरान कालवी ने इस घटना को धार्मिक और सांस्कृतिक परंपराओं के नजरिए से देखा और वो इस मामले में सरकारों के दखल को लेकर ज्यादा उत्साहित नहीं थे. इसे महिलाओँ की आस्था और धर्म के प्रतीक के रूप में भी देखा गया क्योंकि राजस्थान के सामाजिक इतिहास में युद्ध में जौहर और किसी अन्य कारण से पति की मौत होने पर सती होने की परंपराएं थी. उनके विचार इस मुद्दे पर उनके अन्य समकालीन नेताओं से भिन्न थे. जनता इस मुद्दे पर दो हिस्सों मे बंटी थी. एक समर्थन या कहें कि सरकारों के दखल के विरोध में थी तो दूसरा हिस्सा कह रहा था कि महिलाओं को इस कुरीति से हर हाल में दूर करना होगा. निष्कर्ष रूप में हम कह सकते हैं कि भैरों सिंह शेखावत और कल्याण सिंह कालवी की भूमिका दिवराला सती कांड के दौरान विरोधाभासी थी। शेखावत ने सती प्रथा की निंदा की और कानूनी सुधारों का समर्थन किया, जबकि कालवी ने सांस्कृतिक और धार्मिक दृष्टिकोण से सती प्रथा का महिमामंडन किया। इस घटना ने राजस्थान की राजनीति में सामाजिक और सांस्कृतिक टकराव को उजागर किया और नेताओं को अपनी स्थिति स्पष्ट करने के लिए मजबूर किया। तो दोस्तों, ये जानकारी आपको कैसी लगी, हमें कमेंट बॉक्स में जरूर बताइएगा, अगर रूप कंवर सती कांड में आपके पास कुछ अलहदा जानकारी है तो भी जरूर लिखिएगा...क्योंकि कुछ मामले,न सिर्फ इतिहास के पन्नों मे दर्ज हो जाया करते हैं बल्कि वे पुरानी इबारत बनकर आज के दौर में भी मिसाल की तरह इस्तेमाल होते हैं. दिवराला का सती कांड धर्म, महिलाओं की आजादी, महिलाओं की सामाजिक स्थिति के साथ-साथ सरकार और नेताओं की स्थिति के विविध पहलूओं को उजागर करता है|

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